चित्रकला के तत्व: रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत और अन्तराल

मानवीय भावों की अभिव्यक्ति कला है किन्तु यह हमारी दैनिक अभिव्यक्ति से अलग है। दैनिक जीवन में हम अपने भावों को सहज रूप में शारीरिक चेष्टाओं अथवा वाणी के द्वारा व्यक्त करते हैं वह साधारण अभिव्यक्ति है। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिये व्यंजना के माध्यम जैसे भाषा, शारीरिक चेष्टाओं, रंगों, आकारों आदि का कलात्मक प्रयोग आवश्यक है। कला का मूल उद्देश्य एक ऐसे समानान्तर संसार का सृजन है जिसमें स्वचेतन मनुष्य अहं-भाव से मुक्त हो अपने को अनन्त रूपों में देख सके ।

चित्रकला के तत्व क्या हैं? 

चित्रकला के तत्व वे बुनियादी घटक या आधारभूत गुण हैं जिनका उपयोग किसी भी कला कार्य, विशेष रूप से चित्रकला में, किया जाता है। ये तत्व किसी चित्र को आकार, रंग, रूप, और संरचना प्रदान करते हैं, जिससे वह चित्र अधिक जीवंत, संतुलित और आकर्षक बनता है। उदाहरण के लिए, रेखा, आकार, रंग, विन्यास, टेक्सचर, और स्थान जैसे तत्व एक चित्र में अलग-अलग भावनाओं, मूड और दृश्य प्रभावों को उभारने में मदद करते हैं। इन तत्वों का सही ढंग से प्रयोग करके कलाकार अपनी कला में गहराई और अर्थ जोड़ता है।

कला क्या हैं?

कला लोगों के लिए अपनी भावनाओं और विचारों को साझा करने का एक तरीका है। यह हमें यह दिखाने में मदद करता है कि हम अपने आस-पास की दुनिया को कैसे देखते हैं और महसूस करते हैं। कला बनाने के लिए, आपको कौशल और अपनी कल्पना दोनों का उपयोग करने की आवश्यकता है। कला के कई प्रकार हैं, जैसे पेंटिंग, मूर्तियाँ बनाना, संगीत, अभिनय, कहानियाँ लिखना, तस्वीरें लेना, और बहुत कुछ। भारत में, कला का मतलब ऐसी चीजें करना है जिसके लिए विशेष कौशल की आवश्यकता होती है, और यूरोप में लोग सोचते हैं कि कौशल भी महत्वपूर्ण हैं। कला दिखाती है कि हम कौन हैं और हम चीजों को कैसे बनाते हैं। क्योंकि हर कोई अलग है और उसका अपना इतिहास और परंपराएँ हैं, इसलिए लोगों की हमेशा कला के बारे में अलग-अलग राय होगी।

“कलांति ददातीति कला” अर्थात् “सौंदर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु का नाम कला है।”

प्राचीन काल में शिल्प में कुशलता ही कला मानी जाती थी और कला के लिये शिल्प शब्द का प्रयोग किया जाता था। कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग प्रथम शताब्दी में आचार्य भरतमुनि ने अपने ‘नाट्य-शास्त्र’ में शिल्प और कला दोनों शब्दों का अलग-अलग प्रयोग किया।

चित्रकला क्या हैं?

 किसी भी समतल धरातल पर रेखाओं तथा रंगों के द्वारा लम्बाई, चौड़ाई, गोलाई एवं ऊँचाई को अंकित कर किसी आकृति का सृजन करना चित्रकला है। चित्र एक संयोजन है। किसी भी कलाकृति में बनी वस्तु वास्तव में वस्तु नहीं वरन् रेखा, रंग आदि का सुनियोजित समूह है। किसी भी चित्र को देखने पर हमें मात्र वह विषय ही आकर्षित नहीं करना बल्कि उस चित्र में किस प्रकार का रेखांकन है, किस तरह से रंगों का प्रयोग किया है व विषय को किस प्रकार चित्र-भूमि पर संयोजित किया है आदि तत्व आकर्षित करते हैं। कलाकृति की रचना में माध्यम और चित्रण तत्वों दोनों का प्रयोग होता है। जैसे कागज, केनवास, तेल रंग, जलरंग आदि माध्यम हैं। किन्तु रेखा, आकार, हल्का लाल रंग, गहरा पीला रंग की बात करते हैं तो यह चित्र के तत्व कहलाते हैं। प्रत्येक तत्व किसी न किसी माध्यम द्वारा ही व्यक्त होता है। संयोजन में विविधता इन्हीं तत्वों के प्रयोग करने की विधि से उत्पन्न होती है। 

चित्रकला के तत्व निम्नलिखित हैं:-

1. रेखा

2. रूप

3. वर्ण

4. तान

5. पोत

6. अन्तराल

रेखा

अबाध गति से बिन्दुओं को अंकित करने से रेखा बनती है। ज्यामिति के अनुसार रेखा दो बिन्दुओं के बीच की सूक्ष्म दूरी को कहते है। यह गति की दिशा को निर्देशित करती है। किन्तु कलात्मक रेखा इससे भिन्न होती है। यह किसी यन्त्र की सहायता से खींची न होकर मुक्तहस्त स्वतन्त्रतापूर्वक खींची होती है। इस रेखा में वैयक्तिकता एवं विविधता होती है। यह दुर्बल अथवा प्रवाहपूर्ण, कम्पित अथवा सधी हुई, मोटी अथवा बारीक, कोमल किनारों वाली अथवा कटी-फटी हो सकती है। यह रूप की अभिव्यक्ति एवं प्रवाह को अंकित करती है।

रेखा के प्रभाव

रेखाओं के प्रभाव उनकी अंकन विधि एवं दिशाओं पर आधारित रहते हैं। इनका उद्देश्य चित्र में भावों को व्यक्त करना होता है। सरल रेखाओं में निश्चय और कठोरता के भाव प्रदर्शित होते हैं। अत्यधिक मुड़ी हुई रेखाओं में शक्ति और क्रियाशीलता नज़र आती है, अधिक टेड़ी-मेड़ी रेखाएँ आघात पहुँचाती हैं। नीचे की ओर गिरती हुई वर्तुल रेखाऐं शान्ति शिथिलता, निष्क्रियता एवं निराशा आदि व्यक्त करती हैं। यह रेखाओं के सामान्य गुण हैं। रेखाऐं विभिन्न प्रकार की होती हैं। सभी का प्रभाव भी भिन्न होता है। जैसे:-

1. सीधी लम्बवत रेखा- यह रेखा खड़े होने का भाव देती है। इसके अतिरिक्त दृढ़ता, गौरव, उच्चता, संतुलन, आकांक्षा, शक्ति, स्थायित्व का भाव भी प्रकट होता है

2. सीधी पड़ी हुई – यह रेखा चित्र में बने आकारों को आधार प्रदान करती है। यह स्थिरता, विस्तार, निश्चलता, निष्क्रियता और सन्तुलन का भाव व्यक्त करती है।

3. कर्णवत या आड़ी रेखाएँ- नृत्य या नाटक के दौरान या दौड़ते-चलते समय बनने वाली मुद्राओं में रेखाऐं कर्णवत स्थिति में नजर आती हैं। यह रेखाएँ उतेजना, बैचेनी, व्याकुलता के भाव को प्रदर्शित करती हैं।

4. कोणात्मक रेखायें- संघर्ष, तीव्रता, असुरक्षा, व्याकुलता को प्रदर्शित करती हैं।

5. एक पुंजीय रेखायें- प्रकाश, शक्ति, स्वच्छन्दता, शोभा, स्वदेश प्रेम, प्रसार का भाव व्यक्त करती हैं।

6. चक्राकार रेखायें – लयपूर्ण गति, उत्तेजना एवं भय को प्रदर्शित करती है।

7. प्रवाही रेखायें – क्रमिक परिवर्तन, गति, प्रवाह एवं लावण्य, माधुर्य के भाव को अभिव्यक्त करती हैं। 

रेखांकन के प्रकार

स्वतन्त्र रेखांकन – जब हम किसी भी वस्तु को देखते हैं तो उसका प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। इसमें मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करना होता है। वस्तु का मस्तिष्क पर प्रभाव हर कलाकार पर भिन्न होता है

स्मृति रेखांकन – इसमे पूर्व में देखी गई आकृति का रूप देखे बिना यथावत चित्रण करना होता है

प्रतिरूपात्मक रेखांकन- इसमें वस्तु जैसी दिखती है वैसा बनाने का प्रयत्न करते है। रेखा की सहायता से छाया, प्रकाश तथा क्षय-वृद्धि का प्रभाव दिखाया जा सकता है।

यांत्रिक रेखांकन – इसमे रेखाये यन्त्रों की सहायता से नपी तुली होती है। यह यांत्रिक चित्र, नक्शे आदि बनाने में सहायक होता है। इनका कलात्मक प्रभाव नहीं होता।

सीमान्त रेखांकन- इसमे छाया-प्रकाश द्वारा सीमा रेखा का ज्ञान किया जाता है। ये आकार बोधक रेखाएँ होती है।

2. रूप

रूप के बिना दृश्य कलाओं का अस्तित्व ही नहीं है। रूप का निर्माण विषय के अनुसार आकृतिमूलक, यथार्थ या फिर अमूर्त भी हो सकता है। यह सब चित्रकार की शैली या अभिव्यक्ति पर निर्भर करता है।

रूप की परिभाषा – किसी भी वस्तु या पुंज की आकृति ही रूप है, जो अन्तराल के किसी भाग को चारों ओर से घेरती है। इसका अपना निश्चित आकार तथा वर्ण होता है। कला में आकृति को किसी निश्चित उद्देश्य से सृजित या विकसित किया जाता है।

रूप का वर्गीकरण – 

साधारणतया रूप दो प्रकार के होते है:-

1. नियमित (सममित)

2. अनियमित (असममित)

1. नियमित (सममित)- यदि किसी रूप को मध्य में रेखा द्वारा दो भागों में विभक्त किया जाए और दोनों भाग एक दूसरे के विलोम आकृति वाले हों ऐसे रूप नियमित रूप कहलाते हैं।

2. अनियमित (असममित)- असममित रूप में मध्य में रेखा द्वारा विभाजित करने पर दोनों भागों में समानता नहीं होती है। जैसे विषम त्रिभुज, शंख आदि। ऐसे रूप ज्यादा रूचिकर एवं सृजनात्मकता वाले होते हैं।

रूप के प्रभाव-

रूप का प्रभाव इनके दृष्टिगत तथा आकारगत भार के कारण होता है। रूप के निम्न प्रभाव हो सकते है :

1. आयताकार – शक्ति तथा एकता

2. त्रिभुजाकार – शाश्वतता, सुरक्षा तथा विकास

3. वयोकिलाकार – जीवाश्मता तथा अशांति 

4. आनंदकार – लावण्य, सौंदर्य, नित्यता, सृजनात्मकता

5. वृत्ताकार – समानता, विशालता, पूर्णता, आकर्षण, गति

3. वर्ण

वर्ण या रंग किसी भी कलाकृति का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। रंगों के प्रयोग से कलाकृति में आकर्षण आ जाता है। वर्ण बोध हमारे दृश्यात्मक अनुभव का महत्वपूर्ण पक्ष है। प्रकाश वर्ण के अनुभव का माध्यम है जो वस्तु से प्रतिबिम्बित होकर अक्ष-पटल तक पहुँचता है। प्रकाश परिवर्तन के साथ ही वस्तु के वर्ण में भी परिवर्तन आ जाता है। पीले प्रकाश में वस्तुओं पर पीले रंग का प्रभाव आ जाता है। रंगहीन वस्तुओं यथा साबुन के बुलबुले, पानी पर तैरता तैल, पारदर्शक काँच के गिलास में पानी आदि पर भी प्रकाश एवं आस पास की वस्तुओं के रंगों का प्रभाव आ जाता है। रंगो का अपना प्रभाव होता है जो मानव की मानसिक भावनाओं को प्रभावित करने की शक्ति रखता है।

वर्ण की परिभाषा-

वर्ण प्रकाश का गुण है इसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता बल्कि अक्षपटल द्वारा मस्तिष्क पर पड़ने वाला एक प्रभाव है।

वर्ण के गुण

 वर्ण के तीन प्रधान गुण होते है।

1. रंगत

2. मान अथवा बल

3. सघनता अथवा घनत्व

1. रंगत – वर्ण का स्वभाव रंगत है। जैसे पीलापन, लालपन, नीलापन होता है जिसकी सहायता से नीले, पीले, तथा लाल के अन्तर को दर्शक जान पाता है।

2. मान अथवा बल- मान रंग के हल्के-गहरेपन को कहते हैं। किसी रंग मे सफेद रंग मिलाने से मान बढ़ता है तथा काला मिश्रित करने से मान घटता है। इस प्रकार सफेद व काले की मात्रा द्वारा विभिन्न मान प्राप्त किये जा सकते है। चित्र में प्रकाश एवं अन्धकार का उचित अनुपात रखा जाता है। यह विभिन्न रंगतों के मान से ही प्राप्त किया जाता है। 

3. सघनता अथवा घनत्व– यह रंग की शुद्धता से उत्पन्न होता है। जो वर्ण जितना शुद्ध होगा उतनी ही उसकी सघनता अधिक होगी। मिश्रित वर्णों में सघनता कम होगी। किसी रंग मे उदासीन धूमिल रंग मिलाने से सघनता कम होगी इस प्रकार तीव्र, हल्का, लाल सघनता मान व रंगत का सूचक है। 

वर्ण भेद-

1. मुख्य रंग – जो रंग अन्य, किसी मिश्रण से प्राप्त नही किये जा सकते मुख्य रंग कहलाते हैं जैसे लाल, नीला तथा पीला पूर्ण तथा शुद्ध है। ये पदार्थ की मुख्य रंगते है प्रकाश की मुख्य रंगतें हरी, लाल, बैंगनी है।

2. द्वितीय रंग – किसी दो (प्रधान) मुख्य रंगतों को मिलाने से जो रंग प्राप्त होगा द्वितीय रंगत कहलाता है। जैसे लाल-नीला बैंगनी, लाल-पीला नांरगी, नीला- पीला हरा 

3. पूरक या विरोधी वर्ण- दो मुख्य रंगतों को मिलाने से प्राप्त द्वितीय रंगत शेष बची मुख्य रंगत एक दूसरे के पूरक या विरोधी वर्ण कहलाते है। यह वर्ण चक्र में आमने-सामने पड़ते हैं।

वर्ण के प्रभाव-

रंगों का हमारे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इनका चयन भी हमारी भावनाओं से जुड़ा है। किसी भी रंग को पसंद-नापसंद करना व्यक्तिगत भावनाओं एवं स्वभाव पर निर्भर होता है। रंग हमारी भावनाओं को उद्वेलित करने की शक्ति रखते है वर्ण के इन्ही प्रभावों के कारण इन्हें ऊष्ण, शीतल दो भागों मे बाँटते है। जिन रंगो की तरंग गति बहुत अधिक होती है और जो सूर्य तथा आग के रंगो के समीप होते है जिनको देर तक देखने से आँखों को थकान अनुभव होती है गर्म (ऊष्ण) रंग कहलाते हैं जैसे पीला, नांरगी, लाल आदि। इन्हें समीपवर्ती वर्ण भी बोलते हैं। इसके विपरीत जो वर्ण प्रकृति में देखे जाते हैं जैसे- वृक्ष, पर्वत, बर्फ, जल और आकाश आदि से है जिनको देर तक देखने से थकान नही हो शीतल रंग कहलाते है। जैसे नीला, हरा इन्ही प्रभावों के कारण शीतल रंग पृष्ठगामी प्रतीत होते है। 

रंग के प्रभाव इस प्रकार है।

(1) लाल- सर्वाधिक उत्तेजक एवं आकर्षक, सक्रिय एवं आक्रामक है। स्त्रियों में लोकप्रिय है। उत्तेजना, प्रसन्नता, उल्लास, राष्ट्रप्रेम, युद्ध, भय, शंका, क्रोध, कामुकता, आवेग, ओज आदि का प्रतीक है। गर्म रंग है।

(2) पीला – प्रसन्नता, गर्व, प्रफुल्लता, समीपता। यह गर्म प्रभाव वाला रंग है।

(3) नीला- शीतलता, राजस्व, सत्यता, आनन्द, रात्रि आकाश, निराशा, दुःख, मलिनता, दूरी, मानसिक अवसाद स्थिरता एवं दृढ़ता। यह शीतल प्रकृति का रंग है।

(4) हरा- यह ताजगी, शिथिलता, बसन्त, प्रजनन, मनोहरता, विश्राम, सुरक्षा, विकास, प्रफुल्लता, प्रचुरता, ईर्ष्या, अशक्तता का प्रतीक है। यह शीतल वर्ण है।

(5) नांरगी – ज्ञान, वीरता, प्रेरणा, लपट आदि का प्रतीक है।

(6) बैंगनी – यह राजसी, सम्मान, रहस्य, वैभव, प्रभावशीलता एवं श्रेष्ठता आदि का प्रतीक है। शीतल वर्ण है।

(7) श्वेत– यह सक्रिय, प्रकाशयुक्त, प्रभावशील, कोमल है एवं शांति, एकता, स्वतंत्रता, उज्वता, सत्य का प्रतीक है।

(8) श्याम – प्रकाशहीन, उत्तेजनाहीन, दुख, मृत्यु, पाप, अवसाद, अंधेरा, भय बुराई।

वर्ण नियोजन-

1. वर्ण शून्यता – इसमे केवल श्वेत एवं श्याम वर्ण का ही प्रयोग किया जाता है। (सफेद एवं काला)

2. एक वर्णीय – इसमें किसी एक रंगत मे सफेद तथा काला के मिश्रण से प्राप्त तानों का प्रयोग किया जाता है।

3 बहुवर्णीय – यह रंग नियोजन कलाकार की परिपक्वता व अनुभव पर निर्भर करता है। इसमें अधिक रंगतों का प्रयोग किया जाता है।

4 पूरक रंग – वर्ण चक्र मे जो रंग एक दूसरे के आमने सामने पड़ते है उन्हे पूरक रंग कहते है जैसे लाल का पूरक हरा, नीले का पूरक नारंगी, पीले का पूरक बैंगनी।

4. तान

परिभाषा – रंग के हल्के व गहरे बलों में प्रकाश की मात्रा को तान कहते हैं। इस प्रकार तान और बल या मान एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। प्रकाश से वस्तुओं के आकार और रूप प्रभावित होते हैं। वस्तुएँ सपाट भी दिख सकती हैं।

तान को तीन भागों में बाँटा गया है :-

1. छाया

2. मध्यम

3. प्रकाश

यह विभाजन किसी भी रंग मे सफेद व काले की मात्राओं के मिश्रण से उत्पन्न होता है। विभिन्न तान प्राप्त करने के लिये काले व सफेद वर्ण में से एक समय में केवल एक वर्ण का ही प्रयोग करना चाहिये। चित्र मे आकार स्पष्ट रूप रेखा नहीं रखते व चित्र-भूमि मे वह अन्तराल जो एकदम शून्य है उसको तान की सहायता से क्रमिक स्थापना द्वारा जीवन धारा प्रदान की जाती है। इस प्रकार आकारों के बीच सन्तुलन व अन्तराल मे सक्रियता और माधुर्य उत्पन्न हो जाता है।

तान का महत्व एवं प्रयोग-

तान के भावनात्मक तथा बौद्धिक प्रभाव भी होते हैं। कम या अधिक प्रकाश हमारे मनोविकारों को जगाता है। प्रकाश से वस्तुओं का अभिज्ञान होता है। प्रकाश हमें उत्तेजित करता है, शाम का वातावरण हमारे मन को शान्ति प्रदान करता है। इसके द्वारा ही वस्तु का वास्तविक आकार व आयतन का आभास हो जाता है। वस्तु पर तान का प्रभाव आधी आँखे बन्द करके अनुभव कर सकते है, क्योंकि इससे अनावश्यक विवरण छिप जाते है और तान का उचित अध्ययन हो पाता है। द्विआयामी तल पर त्रिआयामी प्रभाव व वातावरणीय क्षय-वृद्धि को हल करने में तान सहायक होती है।

5. पोत

प्रकृति में पाये जाने पदार्थ अथवा वस्तु का धरातल कई प्रकार के हो सकते हैं जैसे चिकने, खुरदरे अथवा फिसलने वाले। इन्ही अनुभूतियों को उस सतह अथवा धरातल का गुण कहते है। अतः किसी भी वस्तु के धरातल का गुण ही पोत है। कला में यह कलाकृति की सतह का गुण है।

कला तत्वों मे पोत का विशेष स्थान है। अतः कलाकार का इसके प्रयोग मे विशेष कुशलता प्राप्त करना अनिवार्य है। हर पदार्थ के अपने गुण होते है। जैसे पत्थर कठोर है ठोस है अतः वह नर्म पनीर जैसा नहीं दिखाया जा सकता। चित्रकार द्विआयामी धरातल भित्ति, कपड़ा, ताडपत्र, कागज एवं अन्य धरातलों का चित्रण कर मानव एवं प्रकृति निर्मित धरातलों को चित्र भूमि पर उतारने का प्रयत्न करता है। हालाँकी उसका गुण चित्र में नही आ सकता परन्तु रंग भरकर चित्रकार दृष्टिभ्रम उत्पन्न करता है। 

पोत का वर्गीकरण-

पोत को दो भागों मे विभाजित किया जाता है।

1. प्राप्त

2. सृजित

प्राप्त – वस्तु या पदार्थ की मूलभूत संरचना जिसे देखकर व छूकर अनुभव किया जा सकता है जैसेकागज, लकड़ी, केनवास, धातु आदि इसी वर्ग में आती है। चित्रकार के चित्र-तल की सामग्री होती है उस सतह का पोत प्राप्त पोत कहलाता है। जैसे कि कागज का दानेदार या चिकना होना, केनवास की बुनावट या दीवार का खुरदरा या चिकना होना।

सृजित – यह वह पोत होते हैं जो चित्र-तल पर सृजित किये जाते है। यह प्राकृतिक वस्तुओं के पोत को देख कर वैसे ही बनाये जाने वाले हो सकते हैं या फिर कलाकार अपनी आवश्यकतानुसार ब्रश, चाकू, रोलर, कपड़े आदि का प्रयोग कर या फिर मोटे-पतले रंगों का प्रयोग कर नवीन काल्पनिक पोत भी बना सकता है। अनुकृत पोत के द्वारा द्विआयामी तल पर त्रि-आयामी प्रभाव उत्पन्न किये जा सकते है। पानी और तेल रंग परस्पर मिलाने से व अन्य पोत संसाधनो के प्रयोग द्वारा कल्पनाजन्य नई सतह तथा धरातल का निर्माण करता है। आधुनिक कला में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। चित्र में अन्तराल की एकरसता को पोत की सहायता से भंग किया जा सकता है। उसमें रूचि उत्पन्न की जा सकती है।

6. अन्तराल

जिस धरातल या भूमि पर चित्र का निर्माण होता है वह द्वि-आयामी चित्र भूमि ही चित्र का अन्तराल है। कला में यह चित्र-भूमि एक तत्व है जिससे आकृतियों की बनावट तथा स्थिति का ज्ञान होता है, प्रमाण की सृष्टि होती है, रूपों का परस्पर संतुलन होता है और भावों का संचार होता है। (चित्र सं. 29) कलाकार के लिये पहली समस्या खाली चित्र-भूमि पर अंकन करने की आती है। चित्रफलक के कितने भाग में वह आकृतियों को बनाये और कितना भाग रिक्त रखे। रिक्त चित्र-भूमि सभी सम्भावनाओं के लिए खुली है। एक बिन्दु या रेखा का अंकन करते ही, अन्तराल मे क्रिया, प्रतिक्रिया तथा संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है तथा चित्र-भूमि कुछ भागों या अनुपातों में विभक्त हो जाती है। किसी अच्छे चित्र के लिये यह आवश्यक है कि अन्तराल विभाजन इस प्रकार किया जाये कि उसका एक भाग दूसरे भाग को प्रभावित करे।

विभाजन की दृष्टि से हम इसे दो प्रकार में बाँट सकते हैं:-

1. समविभक्ति 

2. असमविभक्ति

1. समविभक्ति – रेखाओं की सहायता से चित्र भूमि को इस प्रकार विभक्त करना कि दायँ-बायँ और ऊपर-नीचे के तल का भार बराबर हो एवं उनमें समान सन्तुलन बना रहे। इस प्रकार का विभाजन शान्त रस या करूण रस के लिये उपयुक्त रहता है। 

2. असमविभक्ति – चित्र में गति एवं तनाव उत्पन्न करने के लिये इस प्रकार का विभाजन उपयुक्त रहता है। इस विभाजन में जैसा इधर वैसा उधर वाली परिस्थिति नही होती बल्कि कलाकार स्वतन्त्र होता है। इस विभाजन मे मौलिकता व सृजन का पक्ष प्रबल होता है। यह विभाजन वीरता शक्ति आवेश, प्रेम, प्रगति, सृजन क्रियाशीलता एवं उत्तेजना के भाव के भाव उत्पन्न करने मे सहायक होता है। अन्तराल एवं रूप व्यवस्था- चित्रभूमि प्रायः ऊर्ध्व आयताकार, क्षैतिज आयताकार, वर्गाकार होती है।

 इसके अनुसार ही रूप की व्यवस्था करनी होती है। यह निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं:- 

1. सम्मात्रिक – इस पद्धति में मध्य-ऊर्ध्व रेखा के दोनों ओर समान संयोजन किया जाता है।

2. पिरामिडीय- इस पद्धति में मध्य-ऊर्ध्व रेखा के आधार पर चौड़ा और शीर्ष की ओर नुकीला संयोजन किया जाता है। 

3. ऊर्ध्व – मध्य ऊर्ध्व रेखा के दोनों ओर स्तम्भ के समान लम्बाई में आकृति रचना में इस पद्धति का प्रयोग होता है।

4. विकीर्णित – केन्द्र से चारों ओर आभा विकीर्ण करते हुए।

चित्रकला में इन सभी छः तत्वों का संयोजन के सिद्वान्तों के अनुरुप प्रयोग कर सफल चित्र की रचना सम्भव है।

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