चित्रकला संयोजन के सिद्धांत: “जब एक कलाकार चित्र के तत्व रेखा, रूप, रंग, तान, पोत एवं अंतराल को सुनियोजित एवं कलात्मक रूप में प्रयोग करके अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति चित्र रूप में करता है तो वह संयोजन कहलाता है। “
संयोजन के सिद्धान्त
“संयोजन दो या दो से अधिक तत्वों की मधुर योजना को कहते हैं।”
कला की दृष्टि से संयोजन कलात्मक विचारों को व्यवस्थित रूप से प्रदर्शित करने को कहते हैं | संयोजन को सरल शब्दों में संजोना भी कह सकते है। यह संजोना हम जिस माध्यम में कार्य करते है उस से सम्बन्धित तत्वों की मधुर योजना हो सकती है। जब हम चित्रकला की बात करते है। तो इसमें चित्रकला के उन छः तत्वों को संजोते हैं जिनके बारे में हमने कला कुंज के प्रथम भाग में अध्ययन किया था |
वह छः तत्व हैं :–
1. रेखा 2. रूप 3.वर्ण 4. तान 5. पोत. 6. अन्तराल
चित्र संयोजन में हम रेखा, रूप, वर्ण आदि को इस प्रकार नियोजित करतें हैं कि चित्र संतुलित एवं आकर्षक दिखाई दे | उदाहरणार्थ जब हम अपने नये घर में कमरे को विभिन्न सामान से सजाते हैं तो उसमें हम इस प्रकार से कुर्सी, मेज, पलंग आदि को विभिन्न स्थानों पर रखते हैं कि कमरा संतुलित एवं आकर्षक नजर आये | कमरे की दीवारों का रंग, पर्दे का रंग सोफे का कुशन इत्यादि एक दूसरे से मेल खाते हुए हो इस बात का भी ध्यान रखा जाता है | इसी प्रकार का नियोजन हम अपने चित्र में विषय सम्बन्धित विभिन्न आकारों एवं वर्णों का प्रयोग करके करते है | हर चित्र को बनाते समय हर कलाकार के सोचने और बनाने में भिन्नता होती है किन्तु कुछ नियम सब पर लागू होते हैं जिनसे चित्र को आकर्षक बनाया जा सकता है | इन नियमों को हम संयोजन के सिद्धान्त के रूप में जानते है। इन सिद्धान्तों के प्रयोग से चित्र संतुलित एवं आकर्षक प्रतीत होता है। संयोजन के नियम मनमाने ढंग से नहीं बनाये गये हैं बल्कि हमें प्रकृति में यही नियम देखने को मिलते हैं | एक अच्छे चित्र में विविधता में एकता होती है।
चित्रकला संयोजन के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
1. सहयोग (एकता)
2. सामंजस्य (Harmony)
3. संतुलन (Balance)
4. प्रभाविता (Dominance ro Emphasis)
5. प्रवाह (ताल, लय) (Rhythm)
6. प्रमाण (अनुपात) (Proportion)
1. सहयोग (एकता)
सहयोग का अर्थ चित्र के विभिन्न तत्वों में एकता, समानता एवं एक सम्बन्ध जो समस्त संयोजन को एक सूत्र में पिरोता है। इस से चित्र में विभिन्न आकृतियों, वर्ण आदि में बिखराव नहीं होता है। चित्र में बनी विभिन्न आकृतियाँ एवं वर्ण आदि इस प्रकार संयोजित होने चाहिये कि चित्र एक प्रतीत हो यानि चित्र को टुकड़ों में टूटने से बचाना और एक चित्र में कई चित्र का भाव पैदा न हो, एकता का उद्देश्य होता है।
कई चित्रों का समूह एक अच्छा संयोजन नहीं प्रतीत होता। चित्र को देखने से ऐसा नहीं दिखना चाहिये कि चित्र की विभिन्न आकृतियाँ एवं अन्य तत्व सब एक दूसरे से अलग-अलग हों। यह वैसा ही है जैसा कि कपड़ों में हम कमीज के साथ पेंट खरीदते है ना कि धोती। चित्र में सहयोग के लिये विभिन्न आकृतियों एवं वर्ण आदि में समानता से कई बार एकरसता आ जाती है। चित्र में आकर्षण पैदा करने के लिये उसमें थोड़ा विरोधाभास (contrast) भी पैदा करना चाहिये। इसके लिये समान आकार की आकृतियों के साथ कुछ आकृतियाँ भिन्न प्रकार की चित्रित कर सकते है। और इसी प्रकार का प्रयोग वर्ण, तान, पोत इत्यादि में भी कर सकते है। किन्तु इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि यह विरोधाभास चित्र के विषय को प्रभावित न कर दे। विरोधाभास मात्र आकर्षण के लिये कम मात्रा में करना चाहिये।
2. सामंजस्य (Harmony)
किसी भी चित्र में कई आकृतियाँ बनाई जाती हैं। जब इन आकृतियों में एक या अधिक प्रकार की समानता होती है वहाँ इनका संयोजन सामंजस्य उत्पन्न करता है। सामंजस्य का अर्थ है कि चित्र के सभी तत्व रूप, वर्ण, तान, पोत आदि एक दूसरे से मेल खाते हुए हों। सभी तत्व यथा रेखा, रूप, वर्ण आदि चित्र के विषय से जुड़े हुए हो यह ध्यान रखना चाहिये। गाँव के दृश्य में शहरी वातावरण चित्र में सामंजस्य को भंग करता है।
सामंजस्य विरोधाभास का विलोम है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि चित्र में विरोधाभास का प्रयोग बिलकुल न किया जाये। सामंजस्य चित्र में सौंदर्य का भाव जाग्रत करता है। चित्र में कुछ मुख्य आकृतियाँ होती है एवं कुछ सहायक आकृतियाँ। मुख्य आकृतियों में सामंजस्य होना आवश्यक है। आकर्षण के लिये विरोधाभास सहायक आकृतियों में करना चाहिये। इसी प्रकार रेखा, वर्ण एवं पोत में भी सामंजस्य चित्र में सुन्दरता लाता है। वर्ण सामंजस्य के लिये समीपस्थ वर्ण योजना का प्रयोग कर सकते हैं। ठण्डे वर्ण के साथ ठण्डे वर्णों का प्रयोग चित्र में सामंजस्य भाव लाता है। इसी प्रकार गर्म वर्णों के साथ गर्म वर्ण योजना का प्रयोग करना चाहिये। उदासीन वर्णों (धूमिल, रूपहला) के प्रयोग से भी वर्ण सामंजस्य आता है। पारदर्शक वर्ण का आवरण सभी वर्णों के ऊपर करने से सभी वर्णों में सामंजस्य भाव जाग्रत होता है। खुरदर पोत के साथ खुरदरे पोत का संतुलन सामंजस्य लाता है। गहरी तान एवं हल्की तान के बीच मध्यम तान का प्रयोग चित्र में तान सामंजस्य लाता है।
किसी अच्छे चित्र में प्रायः सामंजस्य रहता है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। बाल-कला एवं आदिम कला में इसका विचार नहीं किया जाता है। आधुनिक कला में भी सामंजस्य की अपेक्षा विसम्वाद को अधिक महत्व दिया जाता है। चित्र में सामंजस्य जितना आधिक होगा, तनाव उतना ही शिथिल हो जायेगा और शान्ति का अनुभव होगा।
3. संतुलन (Balance)
संतुलन के अनुसार चित्रण के सभी तत्व इस प्रकार व्यवस्थित हों कि उनका भार समस्त चित्र तल पर समुचित रूप से वितरित रहे। यहाँ भार से मतलब आकर्षण में दर्शक की दृष्टि को पकड़ने की क्षमता से है। यह आकर्षण चित्रण के विभिन्न तत्वों के प्रयोग पर निर्भर होता है। इस भार को अन्य भार से संतुलित किया जा सकता है। इसे समझने के लिये हम तराजू का उदाहरण ले सकते है। तराजू के दोनों पलड़े असमान भार से ऊपर नीचे होते हैं। उन्हें बराबर लाने हेतु दोनों पलड़ों में समान भार रखना पड़ता है।
यही सिद्धान्त हमें चित्र में भी प्रयोग लाना होता है। असमान भार चित्र के केन्द्र से असमान दूरी पर संयोजित होते हैं। चित्र में बड़े आकार वाली आकृति का भार अधिक होता है। बड़े आकार को केन्द्र के समीप संयोजित किया जाता है। और छोटे आकार को केन्द्र से दूर संयोजित किया जाता है। गर्म वर्ण का भार अधिक होता है व ठण्डे वर्ण का भार कम होता है। आकार में पोत का प्रयोग उसके भार को बड़ा देता है। वर्ण के बड़े क्षेत्र का प्रभाव शांत होना चाहिये जबकि छोटे क्षेत्रों में शक्तिशाली विरोधाभास रहना चाहिये। इसके लिये बड़े क्षेत्र में ठण्डे वर्ण का प्रयोग करना चाहिये एवं छोटे क्षेत्र में उष्ण वर्ण का प्रयोग संतुलन लाता है।
4. प्रभाविता (Dominance or Emphasis)
प्रभाविता का अर्थ है कि हमारी दृष्टि चित्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व पर सबसे पहले पड़े उसके बाद महत्व के क्रमानुसार अन्य तत्वों पर जाये। चित्र में दर्शक की दृष्टि को पकड़ने की शक्ति होनी चाहिये। चित्र में एक आकर्षण केन्द्र होना चाहिये। जो भी तत्व दर्शक की दृष्टि को इस केन्द्र की ओर ले जाये वो संयोजन की दृष्टि से अच्छे हैं और जो भी तत्व दर्शक की दृष्टि को इस केन्द्र से दूर ले जाये वो ठीक नहीं है।
मानवआकृति में आकर्षण का केन्द्र मानव मुख है। प्रभाविता सृजन के लिये मुख्य आकृतियों को चित्रित करते समय खयाल रखना चाहिये कि वह आकृतियों के समूह में दब या छुप नहीं जाये। जिस प्रकार भीड़ में खड़ा व्यक्ति सामने होते हुए भी नज़र नहीं आता उसी प्रकार आकृतियों के समूह में मुख्य आकृति पर नज़र नहीं जाती। इसलिये मुख्य आकृति के पीछे रिक्त स्थान रखने से मुख्य आकृति पर प्रभाव आ जाता है। छाया-प्रकाश में विरोधाभास से भी रूप में प्रभाविता आती है। अलंकृत स्थान या रूप पर दृष्टि आकर्षित होती है। किन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अधिक अलंकरण दर्शक को विषय से भटका देता है।
5. प्रवाह (ताल, लय) (Rhythm)
प्रवाह अर्थ है कि दर्शक की दृष्टि का स्वतन्त्र अबाध एवं मधुर विचरण। अच्छे चित्र में दर्शक की दृष्टि सम्पूर्ण चित्र पर बिना किसी उलझन के विचरण कर पाती है। किसी भी चित्र को देखते समय दर्शक की दृष्टि चित्र में बाँयी ओर के निचले भाग में से प्रवेश करती है और फिर सम्पूर्ण चित्र पर घूम जाती है।
एक अच्छे चित्रकार में यह गुण होता है कि वह दर्शक की दृष्टि को नियन्त्रित करते हुए इच्छित मार्ग से आगे बड़ता हुआ चित्र के मुख्य स्थान पर ले आता है। यह प्रवाह चित्रण के तत्वों रेखा, रूप, वर्ण, तान आदि मिलकर उत्पन्न करते हैं। हमें लहरदार प्रवाह में आनन्द अधिक अनुभव होता है। जैसे किसी हाई-वे पर अगर हम यात्रा कर रहे हों तो कुछ ही समय में हम यात्रा में नीरसता अनुभव करने लगते हैं और अगर हम किसी गाँव की पगडन्डी पर चल रहे हों तो हर पल हन उत्साहित और उल्लासित रहते हैं।
यही सुख हमें माँ की गोद या पालने में भी अनुभव होता है। सीधी सरल गति में एकरसता का भाव होता है। लहरदार रेखायें कोणदार रेखाओं से अधिक गति का आभास देती है। प्राचीन भारतीय कलाओं का आधार लहरदार रेखाऐं ही है। अजन्ता की गुफाओं में बने विभिन्न भित्ती चित्र, राजस्थानी चित्र शैली, मुगल चित्र शैली आदि में लहरदार प्रवाही रेखाओं का ही प्रयोग किया गया है। इसके अलावा आकृतियों की आवृति यानि बार-एक प्रकार की आकृति को चित्र के विभिन्न स्थानों पर बना कर भी चित्र में प्रवाह का अनुभव किया जा सकता है।
6. प्रमाण (अनुपात) (Proportion)
प्रमाण का अर्थ है अनुपात। किसी भी चित्र को बनाते समय हमारे मन में प्रश्न आता है कि हम बना रहे आकार को चित्र में कितना बड़ा अथवा छोटा बनाये। लम्बाई चौड़ाई का यह नाप ही अनुपात कहलाता है। यदि हमें किसी गाँव का दृश्य बनाना है तो उसमें पहाड़ कितने बड़े बनाये, वृक्ष का आकार कितना हो आदि निर्धारित करना ही प्रमाण कहलाता है। सभी आकृतियों का अनुपात एक दूसरे से सम्बद्ध है। पहाड़ और पेड़ के अनुपात में ही मानवाकृतियाँ बनाई जाती हैं।
प्रमाण के माध्यम से हम पशु-पक्षियों की भिन्नता, स्त्री-पुरूष आकारों के कद में अन्तर, मनुष्य व देवी-देवताओं के चित्रों में अन्तर निर्धारित करते हैं। मानव शरीर को बनाते समय भी प्रमाण का ज्ञान होना आवश्यक है। मानव शरीर के विभिन्न अंगों में भी आनुपातिक सम्बन्ध है। हमारी हथेली को अगर हम अपने मुँह पर ठोडी से बाल और मस्तक को मिलाने वाली रेखा पर रखें तो हमें ज्ञात होगा कि हमारा मुख और हथेली का प्रमाण एक ही है। इसे एक इकाई के रूप में ताल कहते हैं। भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में कुछ मानवीय नाप बताये गये हैं जिसे ‘उत्तम नवताल’ कहते हैं।