आदिकालीन कला भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है, जो हमारी प्राचीन सभ्यताओं की विशेषताओं और सोच को प्रकट करती है। यह कला न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और वैभव का भी प्रतीक है। इस पोस्ट में हम आदिकालीन कला के इतिहास, प्रमुख रूपों, विशेषताओं, उदाहरणों, और इसके संरक्षण के प्रयासों पर चर्चा करेंगे।
आदिकालीन कला का इतिहास
आदिकालीन कला का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन काल में हुआ। यह कला विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों से प्रभावित रही है। वेद, उपनिषद, और महाकाव्य जैसे ग्रंथों में आदिकालीन कला का उल्लेख मिलता है। इतिहास के विभिन्न कालखंडों में कला ने विभिन्न रूपों में विकास किया, जैसे कि बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म की कला। चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के काल में कला की समृद्धि विशेष रूप से देखी जाती है।
आदिकालीन कला के प्रमुख रूप
- मूर्तिकला
आदिकालीन मूर्तिकला भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण अंग है। इस कला में विभिन्न धार्मिक और सामाजिक थीम्स को दर्शाया गया है। प्रमुख मूर्तियों में गुप्त काल की बौद्ध मूर्तियाँ, खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियाँ, और अजंता-एलोरा की गुफाओं में स्थित मूर्तियाँ शामिल हैं। ये मूर्तियाँ ना केवल सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और धार्मिक कथाओं को भी दर्शाती हैं। - चित्रकला
आदिकालीन चित्रकला में विभिन्न शैली और तकनीकों का उपयोग किया गया। जैन और बौद्ध चित्रकला में खास तौर पर अमूल्य चित्रण देखने को मिलता है। अजंता की गुफाओं की चित्रकला और कांची की पेंटिंग्स प्राचीन चित्रकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन चित्रों में धार्मिक विषय, सामाजिक जीवन और नैतिक संदेशों को खूबसूरती से चित्रित किया गया है। - आर्किटेक्चर
प्राचीन भारतीय आर्किटेक्चर की विविधता उसकी विशालता और जटिलता में निहित है। मंदिरों की वास्तुकला, जैसे कि कांची और खजुराहो के मंदिर, भारतीय आर्किटेक्चर के शिखर को दर्शाते हैं। इन संरचनाओं में अद्वितीय स्थापत्य कला, स्तूप, और वृहद मंदिरों की व्यवस्था को देखा जा सकता है, जो कला और इंजीनियरिंग के अद्भुत संयोजन को दर्शाते हैं।
आदिकालीन कला का वर्गीकरण
आदिकालीन कला को 3 भागों में वर्गीकृत किया गया है-
१- प्रागैतिहासिक कला
२- वैदिककालीन कला
३- सिंधु सभ्यता की कला
१- प्रागैतिहासिक कला
भारत में प्रागैतिहासिक चित्रकला को प्रकाश में लाने का श्रेय कार्लाइल, काकार्बन और पंचानन मिश्र तथा संस्थाओं में एशियाटिक सोसाइटी को जाता है, जिन्होंने मिर्जापुर (कैमूर) की पहाड़ियों के गुफाचित्रों को उद्घाटित किया।इन चित्रों में अधिकतर आखेट के चित्र प्राप्त होते हैं। इनमें पशु-पक्षियों का अंकन मुद्राओं के साथ करने का प्रयास किया गया है।
आखेटकों के पास नोंकदार भाले, ढाल और धनुष-बाण आदि दिखाये गए हैं।
कुछ चित्रों में आदि धर्म और जादू-टोने एवं कृषक जीवन का चित्रण भी किया गया है।
रंगों में व्यापकता नहीं मिलती, हालाँकि कुछ चित्रों को गेरू, खड़िया और काले आदि रंगों से रंगा गया है।
प्रागैतिहासिक चित्रकला के अन्य नमूने-
मिर्जापुर (उ.प्र.),
रायगढ़ (महाराष्ट्र),
पंचमढ़ी एवं होशंगाबाद (म.प्र.),
शाहाबाद (बिहार) आदि से मिले हैं।
भारत की प्रागैतिहासिक गुफा चित्रकारी, स्पेन की शैलाश्रय चित्रकलाओं से असाधारण रूप से मेल खाती है। ये चित्रकलाएँ आदिम अभिलेख हैं जिन्हें अपरिष्कृत लेकिन यथार्थवादी ढंग से तैयार किया गया है।
२- वैदिककालीन कला
वैदिक सभ्यता का उदय- प्रागैतिहासिक काल की समाप्ति के बाद धातु युग के साथ वैदिक कला का उदय माना जाता है। दक्षिणी भारत में भी पाषाण काल के पश्चात् लौह युग का ही आरम्भ माना जाता है, परन्तु उत्तरी भारत में ताम्र और सिन्ध में काँस्य युग के पश्चात् ही सम्पूर्ण भारत में लौह युग आया। हालांकि दक्षिण भारत में बहुत सी सामग्री काँसे से बनी प्राप्त है, परन्तु यह या तो बाद की मालूम पड़ती है या फिर दूसरे क्षेत्र से आयातित हुई जान पड़ती है।
‘मध्यप्रदेश’ के ‘गुनजेरिया’ नामक ग्राम से ताँबे के बने यंत्रों के 424 उदाहरण प्राप्त हुये हैं। जो लगभग 2,000 वर्ष ई. पूर्व के हैं। इसी प्रकार ‘उत्तरी भारत’ में ‘कानपुर’, ‘फतेहपुर’, ‘मथुरा’ तथा ‘मैनपुरी जिले’ में ताँबे से बने प्रागैतिहासिक यंत्र तथा हथियार प्राप्त हुये हैं। ‘उत्तरी पूर्व’ में ‘हुगली’ से लेकर ‘पश्चिम’ में ‘सिन्ध’ तक विस्तीर्ण क्षेत्र में ‘ताँबे के हँसियों’, ‘तलवारों’ तथा ‘भालों’ की फलकों आदि के उदाहरण मिले हैं।
३- सिंधु सभ्यता की कला
भारतवर्ष में ईसा से 4,000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 3,000 वर्ष ई. पूर्व के मध्य चीन से लेकर मध्य एशिया तक एक सभ्यता का जन्म हुआ। इस सभ्यता की खोज सन् 1924 ई. में हुई और इसका श्रेय ‘सर जॉन मार्शल’ तथा ‘डॉ. अरनेन्ट मैक’ को दिया जाता है।
सिन्धु घाटी के विशाल क्षेत्र में काली एवं लाल पकाई मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का विशेष विकास हुआ है। इन बर्तनों पर मानवाकृतियाँ (मातृदेवी की मूर्तियाँ), वनस्पति, पशु-पक्षी (कुकुदयुत्त बैल, बारहसिंघा तथा मछली के परिष्कृत रूप) तथा ज्यामितीय अभिप्रायों से जिन पर गोल अर्धचन्द्राकार व तिरछी रेखाओं के आलेखनों का प्रयोग है (जो आदिम शैली जैसा है), इसके अतिरिक्त मोती-मनके एवं प्रसाधन सामग्री भी मिलती है। पुरातत्त्वेत्ता इस सभ्यता को ‘मृतक पात्रों की सभ्यता’ भी कहकर पुकारते हैं।
इस प्रकार की सामग्री ‘भारत’ तथा ‘पाकिस्तान’ में ‘मोहनजोदड़ो’, ‘हड़प्पा’, ‘कुल्ली मेंही’, ‘लोथल’, ‘झुंकर तथा झांगर’, ‘चन्दुदड़ो’, ‘अमरी नुन्दरानाल’, ‘झोब’ नामक स्थानों पर उत्खनन के पश्चात् प्राप्त हुई है।
यूँ तो प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद’ श्री कनिंघम’ ने सन् 1878 ई. में हड़प्पा टीले को खोज की थी, लेकिन वैज्ञानिक आधार पर टीले की खुदाई सन् 1921 ई. में ‘श्री दयाराम साहनी’ के निरीक्षण में कराई गयी थी. और सन् 1922 ई. में स्वर्गीय ‘आर.डी. बैनर्जी’ की अध्यक्षता में उत्खनन कार्य आरम्भ हुआ और लरकाना जिले में मोहनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) तथा लाहौर और मुलतान के बीच हड़प्पा (हरियूपिया) की खुदाई में एक विकसित सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुये।
इसी प्रकार सन् 1954 ई. में ‘एस.आर. राओ’ की अध्यक्षता में कराये गये पुरातत्त्व विभागीय उत्खनन कार्य में इस प्रकार की सभ्यता के अवशेष कठियावाड़ क्षेत्र के ‘लोथल’ नामक स्थान एवं ‘चन्दुदड़ो’ में भी प्राप्त हुये हैं। राजस्थान में ‘पीलीबंगा’ तथा ‘कालीबंगा’ की खुदाई में भी इसी प्रकार की प्राचीन सभ्यता के प्रमाणस्वरूप अनेक पात्र मिले हैं।
क्योंकि इस सभ्यता का विकसित रूप सिन्धु नदी के किनारे अनेक स्थलों की खुदाई में प्राप्त हुआ है, इसी कारण इस सभ्यता को ‘सिन्धु घाटी सभ्यता’ के नाम से पुकारा गया है।
1. कुयेटा सभ्यता (3,500 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
2. अमरी नुन्दरानाल सभ्यता (3,000 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
3. झोब सभ्यता (4,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू.)
4. कुल्ली मेंही सभ्यता (2,800 ई.पू. से 2,000 ई.पू.)
5. हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल सभ्यता (2,700 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
6. झुंकर तथा झांगर सभ्यता (1,500 ई.पू.)
उपरोक्त सभ्यताओं का नामकरण उन स्थानों के नाम पर दिया है, जहाँ इन सभ्यताओं के चिन्ह पाये गये हैं। इन स्थानों पर खुदाई के दौरान रोचक सामग्री प्राप्त हुई है, जिसके आधार पर इस काल की चित्रकला के विषय में अनुमान लगया जा सकता है।
आदिकालीन कला की विशेषताएँ
आदिकालीन कला की विशेषताएँ इसकी शिल्पकला, चित्रकला, और वास्तुकला में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इस कला में विविध तकनीकों का उपयोग किया गया जैसे कि पत्थर की खुदाई, रंगीन चित्रण, और वास्तु निर्माण में उत्कृष्टता। आदिकालीन कला में धार्मिक और दार्शनिक प्रतीक, जैसे कि योग और ध्यान की मुद्रा, अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। यह कला भारतीय सभ्यता की गहराई और समृद्धि को दर्शाती है।
आदिकालीन कला के उदाहरण
- प्रसिद्ध कलाकृतियाँ
कुछ प्रमुख आदिकालीन कलाकृतियाँ जिनका अध्ययन और संरक्षण किया जाता है, वे हैं:
- खजुराहो के मंदिर: ये मंदिर अपनी जटिल मूर्तिकला और विविध चित्रण के लिए प्रसिद्ध हैं।
- अजंता और एलोरा की गुफाएँ: इन गुफाओं की चित्रकला और मूर्तिकला प्राचीन भारतीय कला का बेहतरीन उदाहरण हैं।
- सांची का स्तूप: यह बौद्ध आर्किटेक्चर का एक प्रमुख उदाहरण है, जो अपने अद्वितीय डिजाइन और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है।
- महत्वपूर्ण स्थल
आदिकालीन कला के प्रमुख स्थलों में शामिल हैं:
- खजुराहो: यहाँ के मंदिर अपनी वास्तुकला और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध हैं।
- अजंता-एलोरा की गुफाएँ: इन गुफाओं में प्राचीन चित्रकला और मूर्तिकला के अद्भुत उदाहरण हैं।
- सांची: यहाँ स्थित स्तूप बौद्ध आर्किटेक्चर की एक महत्वपूर्ण कृति है।
आदिकालीन कला का संरक्षण और भविष्य
आदिकालीन कला का संरक्षण महत्वपूर्ण है ताकि हमारी सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित रहे। विभिन्न संगठनों और सरकारों द्वारा इन कलाकृतियों के संरक्षण के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। संग्रहालय, आर्कियोलॉजिकल सर्वे, और संरक्षण परियोजनाएँ आदिकालीन कला को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भविष्य में, नई तकनीकों और अनुसंधान से आदिकालीन कला के अध्ययन और संरक्षण में और भी सुधार हो सकता है।
आदिकालीन कला भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है, जो हमारी प्राचीन सभ्यताओं की समृद्धि और विविधता को दर्शाती है। इसकी सुंदरता, जटिलता, और ऐतिहासिक महत्व को समझना और संरक्षित करना हमारे सांस्कृतिक पहचान के लिए महत्वपूर्ण है। हमें आदिकालीन कला को न केवल समझना चाहिए बल्कि उसकी रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए।
FAQs
आदिकालीन कला का मुख्य उद्देश्य क्या था?
आदिकालीन कला धार्मिक, दार्शनिक, और सामाजिक संदेशों को व्यक्त करने का माध्यम थी।
आदिकालीन कला की प्रमुख विधाएँ कौन-कौन सी हैं?
मूर्तिकला, चित्रकला, और आर्किटेक्चर आदिकालीन कला की प्रमुख विधाएँ हैं।
आदिकालीन कला के संरक्षण के लिए कौन-कौन से प्रयास किए जा रहे हैं?
संग्रहालय, आर्कियोलॉजिकल सर्वे, और संरक्षण परियोजनाओं के माध्यम से आदिकालीन कला का संरक्षण किया जा रहा है।
आदिकालीन कला में प्रयुक्त प्रमुख सामग्री कौन-कौन सी थीं?
आदिकालीन कला में मुख्य रूप से पत्थर, लकड़ी, धातु, और कागज जैसी सामग्री का उपयोग किया गया। मूर्तिकला के लिए विशेष रूप से पत्थर और धातु का प्रयोग किया जाता था, जबकि चित्रकला में प्राकृतिक रंगों और कागज का उपयोग होता था।
आदिकालीन कला का सबसे प्रभावशाली काल कौन सा था?
आदिकालीन कला का सबसे प्रभावशाली काल गुप्त काल था, जिसे “भारतीय पुनर्जागरण” के रूप में जाना जाता है। इस काल में कला, विज्ञान, और साहित्य में उल्लेखनीय उन्नति हुई।
क्या आदिकालीन कला में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग होता था?
हाँ, आदिकालीन कला में धार्मिक प्रतीकों का व्यापक प्रयोग होता था। मूर्तियों और चित्रों में देवी-देवताओं, धार्मिक क्रियाओं, और पौराणिक कथाओं के प्रतीक चित्रित किए गए थे।
आदिकालीन कला की प्रमुख चित्रकला शैलियाँ कौन-कौन सी हैं?
प्रमुख आदिकालीन चित्रकला शैलियाँ में अजंता गुफा चित्रकला, एलोरा गुफा चित्रकला, और कांची चित्रकला शामिल हैं। इन शैलियों में धार्मिक विषयों, ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक जीवन को दर्शाया गया है।
आदिकालीन कला का अध्ययन किस प्रकार किया जाता है?
आदिकालीन कला का अध्ययन आर्कियोलॉजिकल खुदाइयों, पुरातात्त्विक अनुसंधानों, संग्रहालयों की प्रदर्शनी, और ऐतिहासिक ग्रंथों के माध्यम से किया जाता है। विशेषज्ञ और शोधकर्ता इन कलाकृतियों का विश्लेषण करके उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्वता को समझते हैं।
क्या आदिकालीन कला के संरक्षण के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन कार्यरत हैं?
हाँ, कई अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे UNESCO और ICOMOS आदिकालीन कला और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के लिए कार्यरत हैं। ये संगठन वैश्विक स्तर पर संरक्षण प्रयासों में सहायता प्रदान करते हैं और प्राचीन कलाकृतियों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
आदिकालीन कला को संरक्षित करने के लिए आम लोगों को क्या योगदान देना चाहिए?
आम लोग आदिकालीन कला के महत्व को समझकर, संग्रहालयों और ऐतिहासिक स्थलों का दौरा कर सकते हैं, संरक्षण प्रयासों के प्रति जागरूकता फैला सकते हैं, और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा के लिए स्वयंसेवी कार्यों में भाग ले सकते हैं।